श्रीराम समर्थ !!!

मला वाटतें अंतरिं त्वां वसावें | तुझ्या दासबोधासि त्वां बोधवावें |

अपत्यापरी पाववी प्रेमग्रासा | महाराजया सदगुरू रामदासा ||

Friday, June 17, 2011

||दशक पाचवा : मंत्रांचा ||२|| समास तिसरा : शिष्यलक्षण ||


||दशक पाचवा : मंत्रांचा ||२|| समास तिसरा : शिष्यलक्षण ||

||श्रीराम ||

मागां सद्गुरूचें लक्षण| विशद केलें निरूपण |
आतां सच्छिष्याची वोळखण| सावध ऐका ||१||

सद्गुरुविण सच्छिष्य| तो वायां जाय निशेष |
कां सच्छिष्येंविण विशेष| सद्गुरु सिणे ||२||

उत्तमभूमि शोधिली शुद्ध| तेथें बीज पेरिलें किडखाद |
कां तें उत्तम बीज परी समंध| खडकेंसि पडिला ||३||

तैसा सच्छिष्य तें सत्पात्र| परंतु गुरु सांगे मंत्र तंत्र |
तेथें अरत्र ना परत्र| कांहिंच नाहीं ||४||

अथवा गुरु पूर्ण कृपा करी| परी शिष्य अनाधिकारी |
भाअग्यपुरुषाचा भिकारी| पुत्र जैसा ||५||

तैसें येकाविण येक| होत असे निरार्थक |
परलोकींचें सार्थक| तें दुऱ्हावे ||६||

म्हणौनि सद्गुरु आणी सच्छिष्य| तेथें न लगती सायास |
त्यां उभयतांचा हव्यास| पुरे येकसरा ||७||

सुभूमि आणी उत्तम कण| उगवेना प्रजन्येंविण |
तैसें अध्यात्मनिरूपण| नस्तां होये ||८||

सेत पेरिलें आणी उगवलें| परंतु निगेविण गेलें |
साधनेंविण तैसें जालें| साधकांसी ||९||

जंवरी पीक आपणास भोगे| तंवरी अवघेंचि करणें लागे |
पीक आलियांहि, उगें- | राहोंचि नये ||१०||

तैसें आत्मज्ञान जालें| परी साधन पाहिजे केलें |
येक वेळ उदंड जेविलें| तऱ्हीं सामग्री पाहिजे ||११||

म्हणौन साधन अभ्यास आणी सद्गुगुरु| सच्छिष्य आणी सच्छास्त्रविचारु |
सत्कर्म सद्वासना, पारु- | पाववी भवाचा ||१२||

सदुपासना सत्कर्म| सत्क्रिया आणी स्वधर्म |
सत्संग आणी नित्य नेम| निरंतर ||१३||

ऐसें हें अवघेंचि मिळे| तरीच विमळ ज्ञान निवळे |
नाहीं तरी पाषांड संचरे बळें| समुदाईं ||१४||

येथें शब्द नाहीं शिष्यासी| हें अवघें सद्गुरुपासीं |
सद्गुरु पालटी अवगुणासी| नाना येत्नें करूनी ||१५||

सद्गुरुचेनि असच्छिष्य पालटे| परंतु सच्छिष्यें असद्गुरु न पालटे |
कां जें थोरपण तुटे| म्हणौनिया ||१६||

याकरणें सद्गुरु पाहिजे| तरीच सन्मार्ग लाहिजे |
नाहिं तरी होईजे| पाषांडा वरपडे ||१७||

येथें सद्गुरुचि कारण| येर सर्व निःकारण |
तथापि सांगो वोळखण| सच्छिष्याची ||१८||

मुख्य सच्छिष्याचें लक्षण| सद्गुरुवचनीं विश्वास पूर्ण |
अनन्यभावें शरण| त्या नांव सच्छिष्य ||१९||

शिष्य पाहिजे निर्मळ| शिष्य पाहिजे आचारसीळ |
शिष्य पाहिजे केवळ| विरक्त अनुतापी ||२०||

शिष्य पाहिजे निष्ठावंत| शिष्य पाहिजे सुचिष्मंत |
शिष्य पाहिजे  नेमस्त| सर्वप्रकारीं ||२१||

शिष्य पाहिजे साक्षपी विशेष| शिष्य पाहिजे परम दक्ष |
शिष्य पाहिजे अलक्ष| लक्षी ऐसा ||२२||

शिष्य पाहिजे अति धीर| शिष्य पाहिजे अति उदार |
शिष्य पाहिजे अति तत्पर| परमार्थविषईं ||२३||

शिष्य पाहिजे परोपकारी| शिष्य पाहिजे निर्मत्सरी |
शिष्य पाहिजे अर्थांतरीं| प्रवेशकर्ता ||२४||

शिष्य पाहिजे परम शुद्ध| शिष्य पाहिजे परम सावध |
शिष्य पाहिजे अगाध| उत्तम गुणांचा ||२५||

शिष्य पाहिजे प्रज्ञावंत| शिष्य पाहिजे प्रेमळ भक्त |
शिष्य पाहिजे नीतिवंत| मर्यादेचा ||२६||

शिष्य पाहिजे युक्तिवंत| शिष्य पाहिजे बुद्धिवंत |
शिष्य पाहिजे संतासंत| विचार घेता ||२७||

शिष्य पाहिजे धारिष्टाचा| शिष्य पाहिजे दृढ व्रताचा |
शिष्य पाहिजे उत्तम कुळीचा| पुण्यसीळ ||२८||

शिष्य असावा सात्विक| शिष्य असावा भजक |
शिष्य असावा साधक| साधनकर्ता ||२९||

शिष्य असावा विश्वासी| शिष्य असावा कायाक्लेशी |
शिष्य असावा परमार्थासी| वाढऊं जाणे ||३०||

शिष्य असावा स्वतंत्र| शिष्य असावा जगमित्र |
शिष्य असावा सत्पात्र| सर्व गुणें ||३१||

शिष्य असावा सद्विद्येचा| शिष्य असावा सद्भावाचा |
शिष्य असावा अंतरींचा| परमशुद्ध ||३२||

शिष्य नसावा अविवेकी| शिष्य नसावा गर्भसुखी |
शिष्य असावा संसारदुःखी| संतप्त देही ||३३||

जो संसारदुःखें दुःखवला| जो त्रिविधतापें पोळला |
तोचि अधिकारी  जाला| परमार्थविषीं ||३४||

बहु दुःख भोगिलें जेणें| तयासीच परमार्थ बाणे |
संसारदुःखाचेनि गुणें| वैराग्य उपजे ||३५||

जया संसाराचा त्रास| तयासीच उपजे विस्वास |
विस्वासबळें दृढ कास| धरिली सद्गुरूची ||३६||

अविस्वासें कास सोडिली| ऐसीं बहुतेक भवीं बुडालीं |
नाना जळचरीं तोडिलीं| मध्येंचि सुखदुःखें ||३७||

याकारणें दृढ विस्वास| तोचि जाणावा सच्छिष्य |
मोक्षाधिकारी विशेष| आग्रगण्यु ||३८||

जो सद्गुरुवचनें निवाला| तो सयोज्यतेचा आंखिला |
सांसारसंगे पांगिला| न वचे कदा ||३९||

सद्गुरुहून देव मोठा| जयास वाटे तो करंटा |
सुटला वैभवाचा फांटा| सामरथ्यपिसें ||४०||

सद्गुरुस्वरूप तें संत| आणी देवांस मांडेल कल्पांत |
तेथें कैचें उरेल सामर्थ्य| हरिहरांचें ||४१||

म्हणौन सद्गुरुसामर्थ्य आधीक| जेथें आटती ब्रह्मादिक |
अल्पबुद्धी मानवी रंक| तयांसि हें कळेना ||४२||

गुरुदेवांस बराबरी- | करी तो शिष्य दुराचारी |
भ्रांति बैसली अभ्यांतरीं| सिद्धांत नेणवे ||४३||

देव मनिषीं भाविला| मंत्रीं देवपणासि आला |
सद्गुरु न वचे कल्पिला| ईश्वराचेनि ||४४||

म्हणौनि सद्गुरु पूर्णपणें| देवाहून आधीक कोटिगुणें |
जयासि वर्णितां भांडणें| वेदशास्त्रीं लागलीं ||४५||

असो सद्गुरुपदापुढें| दुजें कांहींच न चढे |
देवसामर्थ्य तें केवढें| मायाजनित ||४६||

अहो सद्गुरुकृपा जयासी| सामर्थ्य न चले तयापासीं |
ज्ञानबळें वैभवासी|  तृणतुछ केलें || ४७||

अहो सद्गुरुकृपेचेनि बळें| अपरोक्षज्ञानाचेनि उसाळें |
मायेसहित ब्रह्मांड सगळें| दृष्टीस न यें ||४८||

ऐसें सच्छिष्याचें वैभव| सद्गुरुवचनीं दृढ भाव |
तेणें गुणें देवराव| स्वयेंचि होती ||४९||

अंतरीं अनुतापें तापले| तेणें अंतर शुद्ध जालें |
पुढें सद्गुरुवचनें निवाले| सच्छिष्य ऐसे ||५०||

लागतां सद्गुरुवचनपंथें| जालें ब्रह्मांड पालथें |
तरी जयाच्या शुद्ध भावार्थें| पालट न धरिजे ||५१||

शरण सद्गुरूस गेले| सच्छिष्य ऐसे निवडले |
क्रियापालटें जाले| पावन ईश्वरीं ||५२||

ऐसा सद्भाव अंतरीं| तेचि मुक्तीचे वाटेकरी |
येर माईक वेषधारी| असच्छिष्य ||५३||

वाटे विषयांचे सुख| परमार्थ संपादणे लौकिक |
देखोवेखीं पढतमूर्ख| शरण गेले ||५४||

जाली विषईं वृत्ति अनावर| दृढ धरिला संसार |
परमार्थचर्चेचा विचार| मळिण झाला ||५५||

मोड घेतला परमार्थाचा| हव्यास धरिला प्रपंचाचा |
भार वाहिला कुटुंबाचा| काबाडी जाला ||५६||

मानिला प्रपंचीं आनंद| केला परमार्थी विनोद |
भ्रांत मूढ मतिमंद| लोधला कामीं ||५७||

सूकर पूजिलें विलेपनें| म्हैसा मर्दिला चंदनें |
तैसा विषई ब्रह्मज्ञानें| विवेकें बोधिला ||५८||

रासभ उकिरडां लोळे| तयासि परिमळसोहळे |
उलूक अंधारीं पळे| तया केवी हंसपंगती ||५९||

तैसा विषयदारींचा बराडी| घाली अधःपतनीं उडी |
तयास भगवंत आवडी| सत्संग कैंचा ||६०||

वर्ती करून दांताळीं| स्वानपुत्र हाडें चगळी |
तैसा विषई तळमळी| विषयसुखाकारणे ||६१||

तया स्वानमुखीं परमान्न| कीं मर्कटास सिंहासन |
तैसें विषयशक्तां ज्ञान| जिरेल कैंचें ||६२||

रासभें राखतां जन्म गेला| तो पंडितांमध्यें प्रतिष्ठला |
न वचे, तैसा आअशक्ताला| परमार्थ नाहीं ||६३||

मिळाला राजहंसांचा मेळा| तेथें आला डोंबकावळा |
लक्षून विष्ठेचा गोळा| हंस म्हणवी ||६४||

तैसे सज्जनाचे संगती| विषई सज्जन म्हणविती |
विषय आमेद्य चित्तीं| गोळा लक्षिला ||६५||

काखे घेऊनियां दारा| म्हणे मज संन्यासी करा |
तैसा विषई सैरावैरा| ज्ञान बडबडी ||६६||

असो ऐसे पढतमूर्ख| ते काय जाणती अद्वैतसुख |
नारकी प्राणी नर्क| भोगिती स्वैच्छा ||६७||

वैषेची करील सेवा| तो कैसा मंत्री म्हणावा |
तैसा विषयदास मानावा| भक्तराज केवी ||६८||

तैसे विषई बापुडे| त्यांस ज्ञान कोणीकडे |
वाचाळ शाब्दिक बडबडे| वरपडे जाले ||६९||

ऐसे शिष्य परम नष्ट| कनिष्ठांमधें कनिष्ठ |
हीन अविवेकी आणी दृष्ट| खळ खोटे दुर्जन ||७०||

ऐसे जे पापरूप| दीर्घदोषी वज्रलेप |
तयांस प्राश्चीत, अनुताप- | उद्भवतां ||७१||

तेंहि पुन्हां शरण जावें| सद्गुरूस संतोषवावें |
कृपादृष्टी जालियां व्हावें| पुन्हां शुद्ध ||७२||

स्वामीद्रोह जया घडे| तो यावश्चंद्र नरकीं पडे |
तयास उपावचि न घडे| स्वामी तुष्टल्यावांचुनी ||७३||

स्मशानवैराग्य आलें| म्हणोन लोटांगण घातलें |
तेणें गुणें उपतिष्ठले- | नाहीं ज्ञान| ७४||

भाव आणिला जायाचा| मंत्र घेतला गुरूचा |
शिष्य जाला दो दिसांचा| मंत्राकारणें ||७५||

ऐसे केले गुरु उदंड| शब्द सिकला पाषांड |
जाला तोंडाळ तर्मुंड| माहापाषांडी ||७६||

घडी येक रडे आणी पडे| घडी येक वैराग्य चढे |
घडी येक अहंभाव जडे| ज्ञातेपणाचा ||७७||

घडी येक विस्वास धरी| सवेंच घडि येक गुर्गुरी |
ऐसे नाना छंद करी| पिसाट जैसा ||७८||

काम क्रोध मद मत्सर| लोभ मोह नाना विकार |
अभिमान कापट्य तिरस्कार| हृदईं नांदती ||७९||

अहंकार आणी देहपांग| अनाचार आणी विषयसंग |
संसार प्रपंच उद्वेग| अंतरीं वसे ||८०||

दीर्घसूत्री कृतघ्न पापी| कुकर्मी कुतर्की विकल्पी |
अभक्त अभाव सीघ्रकोपी| निष्ठुर परघातक ||८१||

हृदयेंसुन्य आणी आळसी| अविवेकी आणि अविस्वासी |
अधीर अविचार, संदेहासी- | दृढ धर्ता ||८२||

आशा ममता तृष्णा कल्पना| कुबुद्धी दुर्वृत्ति दुर्वासना |
अल्पबुद्धि विषयकामना| हृदईं वसे ||८३||

ईषणा असूया तिरस्कारें| निंदेसि प्रवर्ते आदरें |
देहाभिमानें हुंबरे|  जाणपणें ||८४||

क्षुधा तृष्णा आवरेना| निद्रा सहसा धरेना |
कुटुंबचिंता वोसरेना| भ्रांति पडिली ||८५||

शाब्दिक बोले उदंड वाचा| लेश नाहीं वैराग्याचा |
अनुताप धारिष्ट साधनाचा| मार्ग न धरी ||८६||

भक्ति विरक्ति ना शांती| सद्वृत्ति लीनता ना दांती |
कृपा दया ना तृप्ती| सुबुद्धि असेच ना ||८७||

कायाक्लेसीं शेरीरहीन| धर्मविषईं परम कृपण |
क्रिया पालटेना कठिण| हृदये जयाचें ||८८||

आर्जव नाहीं जनासी| जो अप्रिये सज्जनासी |
जयाचे जिवीं आहिर्णेसीं| परन्यून वसे ||८९||

सदा सर्वकाळ लटिका| बोले माईक लापणिका |
क्रिया विचार पाहतां, येका| वचनीं सत्य नाहीं ||९०||

परपीडेविषईं तत्पर| जैसे विंचु आणि विखार |
तैसा कुशब्दें जिव्हार| भेदी सकळांचें ||९१||

आपले झांकी अवगुण| पुढिलांस बोले कठिण |
मिथ्या गुणदोषेंविण| गुणदोष लावी ||९२||

स्वयें पापात्मा अंतरीं| पुढिलांचि कणव न करी |
जैसा हिंसक दुराचारी| परदुःखें शिणेना ||९३||

दुःख पराव्याचें नेणती| दुर्जन गांजिले चि गांजिती |
श्रम पावतां आनंदती| आपुले मनीं ||९४||

स्वदुःखें झुरे अंतरीं| आणी परदुःखें हास्य करी |
तयास प्राप्त येमपुरी| राजदूत ताडिती ||९५||

असो ऐसें मदांध  बापुडें| तयांसि भगवंत कैंचा जोडे |
जयांस सुबुद्धि नावडे| पूर्वपातकेंकरूनी ||९६||

तयास देहाचा अंतीं| गात्रें क्षीणता पावती |
जिवलगें वोसंडिती| जाणवेल तेव्हां ||९७||

असो ऐसे गुणावेगळे| ते सच्छिष्य आगळे |
दृढभावार्थें सोहळे| भोगिती स्वानंदाचे ||९८||

जये स्थळीं विकल्प जागे| कुळाभिमान पाठीं लागे |
ते प्राणी प्रपंचसंगें| हिंपुटी होती ||९९||

जेणेंकरितां दुःख जालें| तेंचि मनीं दृढ धरिलें |
तेणें गुणें प्राप्त जालें| पुन्हां दुःख ||१००||

संसारसंगें सुख जालें| ऐसें देखिलें ना ऐकिलें |
ऐसें जाणोन अनहित केलें| ते दुःखी होती स्वयें ||१०१||

संसारीं सुख मानिती| ते प्राणी मूढमती |
जाणोन डोळे झांकिती| पढतमूर्ख ||१०२||

प्रपंच सुखें करावा| परी कांहीं परमार्थ वाढवावा |
परमार्थ अवघाचि बुडवावा| हें विहित नव्हे ||१०३||

मागां जालें निरूपण| गुरुशिष्यांची वोळखण |
आतां उपदेशाचें लक्षण| सांगिजेल ||१०४||

इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे शिष्यलक्षणनाम समास तिसरा ||३||५. ३


समासाच्या आरंभीं श्री समर्थांनीं परमार्थ जीवनामधील एक अति महत्वाचा मुद्दा मांडला आहे. सदगुरू आणि सतशिष्य दोघे एकाच संबंधाची दोन टोके आहेत.सत म्हणजे चांगलेंखरेंयोग्य किंवा सुंदर. ज्याप्रमाणें गुरु सत गुरु पाहिजे त्याप्रमाणें शिष्य सुद्धां सत शिष्य पाहिजे. अशी जोडी खरोखर भाग्यानें जमते. ती जमली कीं मग परमार्थाला पूर येतो. श्री एकनाथांना जनार्दनस्वामींना पाहिल्यावर आपण धन्य झालों असें वाटलें. तर श्री समर्थांना कल्याणस्वामींना {अंबाजीलापाहिल्यावर आपल्या परमार्थाचे सार्थक झालें असें वाटलें. बहुदा सदगुरुपेक्षा सतशिष्य मिळणेंच दुर्घट होऊन बसते ही अध्यात्मजीवनांतील शोकांतिका आहे. :
मागील समासांत सदगुरुचें लक्षण स्पष्टपणे वर्णन केलें. आतां सतशिष्याची ओळख सांगतो. ती लक्ष देऊन ऐकावी. सतशिष्यला सदगुरू भेटला नाहीं तर तो संपूर्ण वाया जातो. सदगुरुला सतशिष्य भेटला नाहीं तर सदगुरुला मोठे श्रम होतात. शिष्याला सतशिष्य बनविण्याचे फार कष्ट सदगुरुला करावे लागतात.

भूमीचा अति सार्थ दृष्टांत देऊन हें समजावतात. :
समजा उत्तम जमीन आहे. तिच्यातील खडे गोटे तन काढून ती छान साफ केली. पण तिच्यांत किडके बी पेरलें,किंवा बी अगदी उत्तम आहे. पण तें खडकाळ जमिनींत पेरलें. या दोन्ही ठिकाणी बरें पीक येत नाहीं. त्याप्रमाणें सतशिष्य ही उत्तम शुद्द भूमी आहे. त्याला हलकें मंत्रतंत्र सांगणारा गुरु भेटला तर प्रपंच न परमार्थ अशी अवस्था होऊन हाती कांहींच लागत नाहीं.

       किंवा सदगुरू हा उत्तम बिसारखा आहे. सदगुरू पूर्ण कृपा करणारा आहे. खरा ब्रम्हज्ञानी आहे व अत्यंत कृपाळू आहे. परंतु त्याला शिष्य जर अनधिकारी, अपात्र, परमार्थाला नालायक भेटला तर सदगुरुला फुकट श्रम होतात. एखाद्या भाग्यवान बापाचा दरिद्री मुलगा असावा तशी अवस्था होते. या कारणानें सदगुरू सतशिष्य यांपैकी एक असून दुसरें नसेल तर सगळें फुकट जातें. परमार्थ साधल्यानें होणारें सार्थक दूर राहतें. म्हणून सदगुरू आणि सतशिष्य यांची जोडी जेथें जमते तेथें सदगुरुला सायास न पडतां शिष्य तयार होतो. दोघांची हौस एकदमच पुरली जाते.आपलें ज्ञान घेणारा भेटला म्हणून सद्गुरूंना समाधान तर आपल्याला ज्ञान देणारा भेटला म्हणून सतशिष्याला समाधान लाभते.

शेताचा दृष्टांत आणखी वाढवून परमार्थजीवनाचीं अंगे स्पष्ट करतात. :
जमीन उत्तम आहे. बी देखील उत्तम आहे. पण पाउस पडला नाहीं तर तें उगवत नाहीं. त्याप्रमाणें सदगुरू आहे. त्याला कोणी सतशिष्य भेटला आहे. पण दोघांमध्ये आत्मज्ञानबद्दल सुखसंवाद नसेल तर शिष्यला स्वानुभव येणार नाहीं. शेतामध्यें बी पेरलें. तें चांगलें उगवलें. पण त्याची निगा राखली नाहीं. त्याच्यावर देखरेख ठेवली नाहीं तर तें फुकट जातें. त्याप्रमाणें सदगुरूनें सतशिष्याला उत्तम बोध केला , शिष्याच्या अंत: करणांत तो ठसला व शिष्यची थोडी प्रगती झाली. पण साधक जर मनापासून साधनाला चिटकून राहिला नाहीं तर झालेली प्रगती खुंटते. जोपर्यंत शेतांतील पीक आपल्या घरीं येऊन पडत नाहीं तोपर्यंत सगळ्या गोष्टी कराव्य लागतात. इतकेच नव्हे तर पीक घरीं येऊन सुद्धा स्वस्थ राहू नये

कारण एकवेळां अगदी पोटभर जेवण झालें तरी पुन: भूक लागली कीं जेवण्याकरितां जवळ सामुग्री ठेवावीच लागते. त्याप्रमाणें सदगुरूनें सांगितलेलें साधन करून आत्मज्ञान प्राप्त झालें कीं तरी साधकानें स्वस्थ राहुं नये. अविदेचा अंमल चालून ज्ञान मंद होण्याचा संभव असतो.म्हणून साधकानें ज्ञान प्राप्तीनंतर देखील आपलें साधन तसेंच चालूं ठेवावें.

परमार्थसाधना एक समग जीवनपद्धती आहे. सत्संगसत्कर्म व स्वधर्म हें तिचें बहिरंग तर साधनासद्वासना व सदुपासना हें तिचें अंतरंग आहे. हीं दोन्हीं अंगें जेथें विकास पावतात. तेथें आत्मज्ञान विलास करतें. :
म्हणून साधना, अभ्यास, सदगुरू, सतशिष्य, सतशास्त्रविचार, सतकर्मचरण, सद्वासना, सदउपासना, सतक्रिया,स्वधर्मचरण, सत्संग, आणि नित्य नेम

या सगळ्या गोष्टी सातत्यानें एकत्र राहिल्या तरच निर्मळ आत्मज्ञान उदय पावतें आणि सतशिष्य संसारांतून पार पडतो. नाहींतर जनसमहांत पाखंडचा जोरानें प्रसार होतो. सदगुरुवर मोठी जबाबदारी असते: या बाबतीत शिष्याला दोष देतां येत नाहीं. कारण शिष्याला तयार करण्याची सगळी जबाबदारी सदगुरुवर असते. अनेक प्रकारचे प्रयत्न करून सदगुरू शिष्याचे अवगुण पालटूं शकतो. एखादा शिष्य चांगला नसेल तर त्याचे अवगुण सदगुरू पालटूं शकतो. परंतु चांगला शिष्य किंवा सतशिष्य वाईट गुरुचे अवगुण पालटून त्याला चांगला करुं शकत नाहीं. याचें कारण असें कीं गुरूला मोठेपणाचा अभिमान असतो. मोठेपणा जाईल म्हणून तो शिष्याकडून  मार्गदर्शन करून घेत नाहीं.

यासाठीं सदगुरु असला पाहिजे तरच शिष्याला उत्तम मार्गदर्शन लाभतें. सदगुरु नसेल तर शिष्य पाखंड मताच्या आधीन होतो. तात्पर्य येथें म्हणजे गुरुशिष्य संबंधामध्ये सदगुरुच मुख्य कारण आहे, तोच शिष्याला पुढें नेतो किंवा मागें खेंचतो. बाकी गोष्टीनां इतकें महत्व नाहीं हें जरी खरें तरी सतशिष्याची लक्षणें सांगतो.

येथून पुढें चौदापंधरा ओव्यांमध्यें श्री समर्थांनी खर्‍या व लायक शिष्याची खूप लक्षणें सांगितली आहेत. त्यांपैकीं दोन मुख्य. एक सदगुरुच्या वचनावर संपूर्ण विश्वास आणि दुसरें सदगुरुला मनापासून शरण जाणें. लहान मूल जसें आई सांगेल तें सर्वस्वी खरें मानतें व तिच्यावर सर्वस्वी अवलंबून राहतें तसेंच सतशिष्यानें सदगुरुच्या बाबतींत केलें पाहिजे. मोठेपणीं अशी बालवृत्ति साधणें यासारखी परमार्थांत भाग्याची दुसरी गोष्ट नाहीं. कल्याणस्वामी आणि श्रीरामकृष्ण परमहंस या दोघांची अगदी लहान मुलाप्रमाणें मनोवृत्ति होती. दोघांनीं परमार्थ हाताबोटावर खेळवला. अभ्यासानें व साधनानें हीं दोन्ही लक्षणें अंगीं आणणें खात्रीनें शक्य आहे. दृढ निश्चयानें व चिकाटीनें सदगुरुच्या मार्गदर्शनाप्रमाणें चाललें मात्र पाहिजें. :
सदगुरुच्या वचनावर संपूर्ण विश्वास हें सतशिष्याचें मुख्य लक्षण आहे. सदगुरुला जो अगदी अनन्यपणें शरण असतो तोच खरा उत्तम शिष्य होय. सतशिष्याचें व्यक्तिमत्व (म्हणजे पर्सनॅलिटी) एका विशिष्ट प्रकारचे असले पाहिजे. तो शांत व विनित असावा. त्याचें सर्वभाव सदगुरुच्या ठिकाणीं स्थिर झालेले असावेत. त्याचें मन सदगुरुच्या शब्दांना अत्यंत सूचनक्षम असावें. त्याचें सर्व अवधान सदगुरुभोंवतीं केंद्रित व्हावें. आणि सदगुरुबद्दल त्याच्या अंतर्यामी अत्यंत आत्मीयता असावी. अशा शिष्याचें मन मेणासारखें मऊ संस्कारक्षम बनतें. मग आत्मज्ञान प्रगट होण्यास जरुर असलेली अंतरीची अवस्था सदगुरु त्या मनामध्यें विनासायास संचारित करु शकतो.

असें आत्मज्ञानाच्या सूचना सहज ग्रहण करणारें अविरोधी मन तयार होण्यासाठीं पुढिल गुण सांगतात. :
शिष्य निर्मळ, आचारशील, अगदी विरक्त आणि चुकीबद्दल वाईट वाटणारा असावा.

        शिष्य निष्ठावंत, शुचिष्मंत आणि सर्व बाबतींत नियमानें वागणारा असावा, शुचिष्मंत म्हणजे पवित्र आचरणाचा. त्याच्या हातून शक्यतों पाप घडूं नये. शिष्य अति उद्योगी, मोठा तत्पर आणि अतींद्रिय वस्तूवर लक्ष केंद्रित करण्याचें मनोबल असणारा असावा. अमूर्तामध्यें संचार करण्याचें सामर्थ्य अंगीं आणल्याखेरीज आत्माचें अनुसंघान साधत नाहीं. शिष्य अति धीराचा, अति उदार परमार्थाविषयी अति तत्पर असावा. परमार्थ साधण्यासाठींच त्यानें जगावें. शिष्य परोपकारी, निर्मत्सरी असावा, ग्रंथाचा अभ्यास करताना शब्दार्थाच्या अंतरंगात शिकणारा असावा, ग्रंथकर्त्याचा खरा आशय बरोबर आकलन होणारा असावा. शिष्य अति शुध्द, अति सावध आणि खूप उत्तम गुणांनीं संपन्न असावा. शिष्य स्वतंत्र विचार- शक्ति असलेला, प्रेमळभक्त आणि नीतीमर्यादा पाळणारा असावा. शिष्य युक्तिबाज, बुध्दिमान आणि चांगल्यावाईटाचा बरोबर विचार करणारा असावा. युक्तिबाज म्हणजे हिकमती किंवा अडचणींतून मार काढणारा. शिष्य धाडसी, निश्चयानें व्रत सांभाळणारा आणि उत्तम कुळांतील पुण्यशील असावा. शिष्य सात्विक, भगवंताला भजणारा आणि मनापासून साधना करणारा साधक असावा. शिष्य खरा विश्वास ठेवणारा, शरीराचे कष्ट सोसणारा आणि परमार्थ कसा वाढवावा याचें बरोबर ज्ञान असणारा असावा. शिष्य स्वतंत्र, जगाचा मित्र आणि सर्व गुणांनीं संपन्न सत्पात्र असावा.

शिष्य ब्रह्मविद्येचा अभ्यास करणारा, भगवंताचें खरें खरें अस्तित्व मानणारा आणि अति शुध्द अंत:करणाचा असावा. शिष्य अविवेकी नासावा, गर्भ श्रीमंत नसावा. तो संसार दुःखानें दुःखी झालेला व त्या दुःखानें जीवनांत पोळलेला असावा. गर्भश्रीमंत माणूस वरवरचें जीवन जगतो. जीवनांतील सुखाची बाजू तेवढी त्यानें पाहिलेली असतें. जीवनाचें उघडेंनागडें स्वरुप प्रगट करणारी दुःखाची बाजू त्यानें अनुभविली नसल्यानें या दृश्य जीवनाच्या पलीकडे असणार्‍या दिव्य जीवनाकडे त्याची प्रवृत्ती होत नाहीं. शिवाय सतशिष्य कायाक्लेशी असावा असें नुकतेंच सांगितले आहे. गर्भश्रीमंताला देहाचे कष्ट करण्याची व सोसण्याची संवय नसते, शक्ति नस्ते. त्याला सदगुरुची सेवा साधणें कठिण असतें.

म्हणून जो संसाराच्या दुःखानीं गांजलेला आहे. शारीरिक व मानसिक तापांनीं किंवा आधीव्याधींनीं पोळलेला आहे तोच परमार्थ करण्यासाठीं खरा योग्य बनतो. दृश्याचे प्रेम सुटल्य़ाखेरीज भगवंताकडे लक्ष लागत नाहिं. विवेकानें दृश्याचे अशाश्वतपण ओळखून आपली वृत्ती भगवंताकडे वळविणारी माणसे फारच क्वचित आढळतात. सामान्य परमार्थ करण्यास लायक होतो असें श्री समर्थ सांगतात.

संसारदुःखानें वैराग्य निपजतें, त्यानंतर सदगुरुला घट्ट धरलें व साधन केलें किं परमार्थ साधतो. :
ज्यानें संसारात पुष्कळ दुःख भोगलेले असतें त्याच्याच अंगीं परमार्थ बाणतो. संसारातील दुःख भोगल्यानें अंतःकरणात वैराग्याचा उदय होतो. ज्याला संसाराचा त्रास वाटूं लागतो, संसार ही कटकट आहे असें मनापासून वाटतें, त्याच्या अंत:करणांत परमार्थाबद्दल विश्वास उत्पन्न होतो. मग त्या विश्वासाच्या जोरावर तो सदगुरुची कास घट्ट धरतो. संसारात राम नाहीं हें पटल्यावर राम ज्याच्यापाशी आहे त्या सदगुरुवर त्याची श्रध्दा बसते.

कांहीं कारणानें श्रध्दा बिघडून जे लोक सदगुरुचा आधार सोडतात ते बहुधा संसारांत बुडतात. संसाराच्या मध्येंच सुखदुःखरुपी मासे त्यांना खाऊन टाकतात. जीवनांत नाना प्रकारच्या सुखदुःखांचे हेलकावे खात ते अश्रध्द लोक अखेर मरून जातात. म्हणूनच जो दृढ विश्वास ठेवतो तोच सतशिष्य समजावा. मोक्षाला लायक असणार्‍याला साधकांमध्यें त्याचा पहिला क्रमांक असतो. श्रध्दा ठेवणें ही एक मनाची मोठी शक्ति आहे. दृढ, घट्ट, पक्की व निश्चल श्रध्दा ठेवणें ही मानवी सर्वांत मोठी शक्ति आहे. जगांत अति बुध्दिमान माणसे भेटणें विशेष कठीण नाहीं. पण निश्चल श्रध्देची माणसे भेटणें फार कठिण आहे. अशी श्रध्दा उपजली कीं आत्मज्ञानाची उषा उजळली असें निश्चितपणें ओळखावें.

अशा दृढ श्रध्देच्या सतशिष्याचें मन सदगुरुच्या बोधानें शांत होतें. तो सायोज्यमुक्तीला लायक होतो. मग संसाराच्या आसक्तीनें किंवा आवडीनें तो कधी खेंचला जात नाहीं.

सदगुरु देवापेक्षां श्रेष्ठ असतो. सदगुरु सतशिष्याला जें देतो तें देव देऊं शकत नाहीं. सदगुरुच्या कृपेनं सतशिष्य स्वतः देवपदाला पोहोंचतो. :
सदगुरुहून देव मोठा आहे असें ज्या शिष्याला वाटतें तो खरोखर कमनशीबी असतो. हा समज म्हणजे एक भ्रमच आहे. वैभवाच्या अभिमानांतून बाहेर पडणारा तो विकल्प असतो. किंवा सामर्थ्य मिळविण्याच्या नादाचा तो परिणाम असतो. शरीराच्या दृष्टीनें म्हणजे स्थूलदृष्टीनें सदगुरु माणूस दिसतो व असतो हें कांहीं खोटें नाहीं. परंतु मनाच्या व आत्म्याच्या दृष्टीनें किंवा सुक्ष्मदृष्टीनें तो प्रत्यक्ष परमात्मस्वरुपच असतो. जो शिष्य सदगुरुला नुसत्याच स्थूलदृष्टीनें किंवा देहबुध्दीच्या दृष्टीनें पाहतो त्याला आपल्या श्रीमंतीचा व सत्तेचा अभिमान वाटणारच. मग तो सदगुरुला गरीब समजून देवाला फार मोठा मानतो. सदगुरु भेटून त्याला पाहतांना देहबुध्दीचा भ्रमात्मक दृष्टिकोन न सुटणें हेंच करटेंपण होय. सदगुरुचें खरें स्वरुप कायम टिकणारे आहे, अविशानी आहे. देवाचें स्वरुप अशाश्वत आहे कारण कल्पांताच्या वेळीं देव नाश पावतात. त्या समयी हरिहरांचें सामर्थ्य सुध्दां उरत नाहीं. ब्रह्मादि देव नाहीसें झालें तरी सदगुरु जसेंच्या तसेच टिकतात. म्हणून सर्व देवांहून सदगुरुचें सामर्थ्य अधिक असतें. क्षुद्रबुध्दीच्या मानवाला ही गोष्ट कळत नाहीं. गुरु आणि देव यांची बरोबरी करतो तो शिष्य दुराचारी समजावा. त्याच्या मनात खोट्या ब भ्रमात्मक कल्पना घट्ट बसवलेल्या असतात. त्यामुळें खरें तत्व काय आहे तें त्याला कळत नाहीं. वास्तविक माणूस आपल्या कल्पनेनें देव तयार करतो, मंत्रानें त्याला देवपणा येतो. परंतु ईश्वराला सुध्दां सदगुरुची कल्पना करता येत नाहीं. म्हणून सदगुरु हा देवांपेक्षा कोटीपटीनें पूर्णपणें अधिक श्रेष्ठ आहे. सदगुरुचें स्वरुप असें कल्पनातीत असल्यानें त्याचें वर्णन करण्यामध्यें वेदशास्त्रांत कोटीपटीनें पूर्णपणें अधिक श्रेष्ठ आहे. सदगुरुचें स्वरुप असें कल्पनातीत असल्यानें त्याचें वर्णन करण्यामध्यें वेदशास्त्रांत फारच मतभिन्नता आढळतें. आपापसांत त्यांची भांडणापर्यंत पाळी येते.

देव काय आणि हें सगळें विश्व काय दृश्याचा सारा पसारा मायेच्या कक्षेंत येतो. सदगुरुच्या स्वरुपाला मायेला स्पर्श नाहीं. :
सदगुरुचें स्थान परमश्रेष्ठ असल्यानें त्याच्यापेक्षां श्रेष्ठ असें कांहीं नाहीं. सगळे देव मायेंतून निर्माण होतात म्हणून त्यांचें सामर्थ्य सदगुरुपुढें लटके पडतें. असो, ज्याच्यावर सदगुरुची कृपा असते त्याच्यावर इतर कोणाची सत्ता चालत नाहीं. त्या कृपेनें शिष्याला ब्रह्मज्ञान होतें. आपल्या ब्रह्मज्ञानाच्या सामर्थ्यानें तो सार्‍या वैभवाला कःपदार्थ मानतो.

सदगुरुकृपेच्या जोरावर सतशिष्याला आत्मसाक्षात्कार होतो, आत्माचें प्रत्यक्ष ज्ञान त्याच्या अंतकरणात जिवंतपणे उसळत राहिल्यानें मायेसकट सारें प्रचंड विश्व खरेंपणानें त्याला दिसत नाहीं. आत्मज्ञानानें तो इतका भरुन जातो कीं आंत आणि बाहेर जिकडे तिकडे आत्मस्वरुपावांचून इतर कांही त्याला दिसतच नाहीं. त्यामूळें तो सतशिष्य स्वत:च ईश्वरस्वरुप बनून जातो. तात्पर्य  मी ब्रह्म आहे   या दिव्य अवस्थेला सतशिष्य पोहोंचतो.

शिष्यसमुदायामध्यें सतशिष्य कसे वेगळे पडतात याचें वर्णन ऐकावें. :
ज्याचें अंत:करण पश्चातापाच्या आगीनें पोळतें तें निर्मल होतें, शुध्द बनतें. पण तें तापलेलें अंत:करण सदगुरुच्या बोधवचनांनीं शांत होतें. सतशिष्याची अवस्था ही अशी असते.

सदगुरुनें सांगितलेल्या मार्गानें साधना करीत असतां सारें ब्रह्मांड पालथें पडण्याचा प्रसंग आला तरी सदगुरुच्या वचनावर असलेला सतशिष्याचा शुध्द अढळ विश्वास यत्किंचितही मागें पुढें होत नाहीं. अशा रीतीनें जे खरे खरे सदगुरुला शरण सतशिष्य मानवतेकडून देवत्वाकडे झपाट्यानें वाटचाल करतो. अर्थात त्यामुळें त्याच्यामध्यें आमूलाग्र बदल होत जातो. तो सर्व दृष्टीनें मोठा निर्मल व पवित्र बनून जातों.

सतशिष्याच्या चित्तामध्यें अशी अढळ श्रध्दा असते त्यामुळे तो मोक्षाचा हक्कदार होतो. बाकीचे शिष्य नूसते शिष्याचा वेष पांघरणारे लबाड वाईट शिष्य समजावें.

यापुढील सोळा सतरा ओव्यांमध्यें श्री समर्थांनीं नामधारी शिष्यांचें वर्णन केलें आहे. त्यांच्या मनामधून प्रपंचाचें प्रेम कमी झालेलें नसतें. किंबहुना प्रापंचिक वासना फलित व्हाव्या साठींच ते शिष्य बनतात. असे हे पढतमूर्ख विनोदासाठींच परमार्थ करतात. :
जें पढतमूर्ख असतात त्यांना मनांतून इंद्रियभोगांमध्यें सुख वाटत असतें. केवळ लौकिकासाठीं ते परमार्थ करतात. आपण परमार्थी आहोत याचें प्रदर्शन करण्यासाठीं ते सदगुरुला शरण जातात. वासना तृप्त करण्यासाठीं इंद्रियभोगांमध्यें तें यथेच्छ रमतात, त्यांना प्रपंचाचें घट्ट प्रेम असतें. त्यामुळें परमार्थामधील सूक्ष्म विचार त्यांना आकलन होत नाहीं. सारखी बहिर्मुख वृत्ति राहिल्यानें त्यांना भगवंताबद्दलचे विचार करता येत नाहींत. पढतमूर्ख माणूस परमार्थाकडे वळतो खरा परंतु त्याचें मन प्रपंचात अडकलेलें असतें, प्रापंचिक वासनांनीं भरुन गेलेलें असतें. त्यामुळें कुटुंबाचें ओझें वाहतां वाहतां हमालाप्रमाणें त्याची अवस्थ 
होते.

त्याचें खरें सुख प्रपंचांत गुंतलेले असतें, केवळ करमणुकीसाठी तो परमार्थ करतो. भ्रमांत राहणारा, मूर्ख व मंद बुध्दीचा तो माणूस वासनेंमध्यें अडकलेला असतो. एखाद्या डुकराला सुगंधी लेप लाविला किंवा एखाद्या रेड्याला चंदनाचा लेप चोळला तर त्यांना त्याची किंमत कळत नाहीं. त्याचप्रमाणें वासनेंत गुरफटलेल्या माणसाला ब्रह्मज्ञान सांगितलें आणि आत्मानात्माविवक शिकविला तर त्याची किंमत कळत नाहीं. उकिरड्यामध्यें म्हणजे अत्यंत दुर्गधीमध्यें लोळणार्‍या गाढवाला सुगंधाचा आनंद आकलन होत नाहीं, किंवा अंधारामध्यें जीवन जगणार्‍या घुबडाला सूर्यप्रकाशात विहार करणार्‍या हंसाच्या मुख्त जीवनाची कल्पना येऊं शकत नाहीं. तो सतत इंद्रिय भोगाच्या घाणींत उडी गेतो, खाली घसरतो. थोबाड वर करुन एखादें कुत्रें ज्याप्रमाणें हाडें चघळण्यात आनंद मानते त्याचप्रमाणें इंद्रियाधीन माणसाला इंद्रियभोगांत आनंद वाटतो. इंद्रियसुखासाठीं तो बेचैन असतो. त्या त्याला सोसत नाहीं त्याचप्रमाणें इंद्रियासक्त माणसाला आत्मज्ञान पचत नाहीं. गाढवें राखतां राखतां त्यांच्या संगतींत ज्या कुंभाराचा जन्म जातो त्याला विद्वानांच्या सभेंत बसविले तर तें त्याला मानवत नाहीं. त्याचप्रमाणें इंद्रियभोगांमध्यें गुंतलेल्या माणसाला परमार्थ साधत नाहीं. राजहंसांच्या समुदायामध्यें एक डोमकावळा शिरला. त्याचें लक्ष सगळें विष्ठेच्या गोळ्यावर आणि तो स्वतःला हंस म्हणवूं लागला. त्याचप्रमाणें संतांच्या संगतींत राहून इंद्रियादास स्वतःला संत म्हणवून घेतात. परंतु त्यांचें सगळें लक्ष इंद्रियभोगरुपी घाणीमध्यें गुंतलेलें असतें. बायकोला बगलेंत घेऊन “ मला संन्यास घ्या ” असें जर कोणी म्हणाला तर तें जसें अर्थहीन असतें तसें इंद्रियासक्त माणूस अव्हाच्या सवा ज्ञान बडबडतो.

असो, अशा पढतमूर्खांना भगवंताशी एकरुप होण्याचें सुख कळणें शक्य नसतें. घाणींतील किड्यांना घाणीमध्येंच मोठा आनंद वाटत. ते अगदी स्वीच्छेनें घाणींत रमतात. वेश्येची सेवा करणारा माणूस राज्यशकट हांकणारा राजाचा प्रधान होऊं शकत नाहीं. त्याचप्रमाणें जो इंद्रियांचा गुलाम आहे तो उत्तम भगवदभक्त कसा होऊ शकेल ?

त्याचप्रमाणें जे लोक इंद्रियसुखांपुढें लाचार होतात त्यांना आत्मज्ञान होणें कसें शक्य आहे ? ते नुसता वाचाळपणा करतात, नुसतें शाब्दिक ज्ञान बदबून जगांत मिरवतात. असे जे शिष्य असतात ते अतिशय वाया गेलेले, हलक्यांतील हलके, हीन, अविवेकी, दुष्ट, दुर्जन, खळ आणि खोटे असतात.

येथें प्रश्न असा येतो कीं या असशिष्यांची वाट काय ? यांना सतशिष्य बनण्यासाठीं कांहीं उपाय आहे किंवा नाहीं ? अशा शिष्यांना तरण्याचा उपाय आहे. पश्चाताप होऊन जर ते सदगुरुला पुन्हा शरण गेले तर सदगुरुच्या कृपबळानें त्यांच्यामध्यें पालट होतो. :
असे जें पापमय शिष्य असतात, फार दिवस दोषरुप जीवन जगल्यानें ज्यांचे दोष अतिशय घट्ट्पणें मनांत बसलेले असतात, त्यांना जर खरा पश्चाताप झाला तर तेंच प्रायश्चित्त होतें. अनुतापाच्या आगीनें त्याचे दोषरुपीं मल जळून जातात आणि अंत:करण निर्मल होऊन जातें. त्यानीं सदगुरुंना पुन्हा शरण जावें, त्यांना प्रसन्न करावें, त्यांची कृपा संपादन करावी आणि शुध्द होऊन जावें. ज्याच्याकडून गुरुद्रोह घडतो म्हणजे गुरुचा द्वेष करतो आणि विश्वासघात करतो, तो कायमचा नरकांत पडतो. सदगुरुंना प्रसन्न करण्याखेरीज द्रोहाचा परिणाम टाळण्यस दुसरा उपाय नाहीं.

पूर्वी हातून घडलेल्या चुकांचा पश्चाताप झाला, सदगुरुला पुनः शरण गेला आणि त्यांना प्रसन्न करुन कृपा करुन घेतली कीं, सतशिष्य होण्याचा मार्ग मोकळा झाला. येथपर्यंत बरेच शिष्य मजल मारतात. पण पुढें सदगुरुंना चिकटून राहून त्यांनीं सांगितलेलें साधन करण्यासाठीं लागणारी एकनिष्ठा थोड्याच शिष्यांच्या ठिकाणीं आढळतें. त्यामुळें पश्चात्ताप आणि शरणागति स्मशानवैराग्याप्रमाणें तात्पुरती ठरतात. शिष्य वाया जातो, त्याला परमार्थ र्साधत नाहीं. :
एखाद्या शिष्याला खरा पश्चात्ताप होतो आणि तो सदगुरुपुढें लोटांगण घालतो. पण त्याची ती मनाची स्थिति स्मशानवैराग्याप्रमाणें फार वेळ टिकत नाहीं. अर्थात अशा तात्पुरत्या शरणागतीनें त्याला आत्मज्ञान होत नाहीं.

अगदी थोडा वेळ टिकणारी भावना आणून सदगुरुकडून मंत्र घेतला. त्या मंत्रापुरतें तात्पुरतें शिष्यत्व पत्करलेलें अशा रितीनें पुष्कळ गुरु केले तरी परमार्थ साधणार नाहीं. अशा शिष्याला लोकांत थाट करायला शब्दज्ञान पुष्कळ येतें, तो अति बडबड्या, शिरजोर आणि दुष्टतर्कवादी बनतो. परमार्थाचें सोंग करण्यापायीं घटकेंत तो देवाचें प्रेम आल्याचें दाखवून रडतो, घटकेंत अंगीं वैराग्य संचरलेलें दाखवितो, तर घटकेंत आपण मोठे ज्ञानी आहोत असा अहंकारीपणा व्यक्त करतों. घटकेंत अत्यंत श्रध्दावान दिसतो तर लगेच दुसर्‍या घटकेला अविश्वासानें उलटून तंटा करायला तयार होतो. अशी वेड लागलेल्या माणसासारखी अनेक सोंगें तो करतो.

काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोभ, मोह, अभिमान, कपटवृत्ती, तिरस्कार असे अनेक दुष्ट विकार त्याच्या हृदयांत भरपूर प्रमाणांत आढळतात. अहंकार, देहसुखाची आवड, अनाचार, इंद्रियभोगांची लालसा, संसाराचें प्रेम, आणि प्रपंचाचा कंटाळा या सगळ्या गोष्टी त्याच्या अंतःकरणांत वास करतात. तो काम करण्यांत दिरंगाई करतो, तो कृतघ्न, पापी, कुकर्मी म्हणजे भ्रष्ट कर्में करणारा भलतेच तर्क करणारा आणि प्रत्येक गोष्टींत संशय काढणारा असतो. तसाच तो अभक्त म्हणजे भक्तिहीन, भावहीन, शीघ्रकोपी, निष्ठुर, परघातकी, हृदयशून्य म्हणजे दुसर्‍याच्या सुखदुःखाची जाणीव नसणारा, आळशी, अविवेकी, अविश्वासी, अधीर, अविचारी, आणि संशयाला घट्ट चिकटून राहणारा असा असतो. आशा, ममता, तृष्णा, कल्पना, वाईट वृत्ति, वाईट वासना, कोती किंवा हलकी बुध्दि आणि इंद्रियसुखाची इच्छा, या सगळ्या परमार्थाला घातक असणार्‍या गोष्ती त्याच्या मनामध्यें वास करतात. त्याला भारी हाव असते. तो मस्तरानें भरलेला असतो. तिरस्कारापायीं तो दुसर्‍याची निंदा अगदी मनापासून करतो. ज्ञानाच्या व देहाच्या अभिमानानें तो उर्मटपणें वागतो. वर वर्णन केलेले देहबुध्दीचे सगळे दुर्गुण नालायक शिष्याच्या ठिकाणीं आढळतात.

परमार्थ साधण्यास अयोग्य असणार्‍या प्रापंचिकाचें वर्णन यापुढें दिलें आहे. हें सगळें सुटल्यावांचून परमार्थ हातीं लागत नाहीं असें स्पष्टपणें दाखविण्याचा हेतु आहे. :
ज्याला आपली तहान व भूक आवरत नाहीं, झोंप आलेली आवरत नाहीं, ज्याच्या मनांतील मुलाबाळांची व बायकोची चिंता कमीच होत नाहीं आणि जो भ्रमानें व्यापलेला आहे अशा माणसाला भगवंत भेटणें शक्य नाहीं. जो भरमसाठ शब्दज्ञान बोलतो पण ज्याच्या अंगीं वैराग्याचा लेशही नसतो, ज्याच्या अंगीं अनुताप नाहीं व धारिष्ट नाहीं, आणि जो साधनाचा मार्ग धरीत नाहीं त्याला भगवंत जोडत नाहीं.

ज्याच्यापाशी भक्ति, विरक्ति, शांति, चांगली वृत्ति, लीनता, इंद्रियदमन, कृपा, दया आणि तृप्ति यापैकीं कांहिच नाहीं, तसेंच ज्याच्यापाशी भगवंताकडे वळणारी बुध्दि नाहीं, त्याला भगवंत भेटत नाहीं. शरीराचें कष्ट करण्यास ज्याची प्रकृति योग्य नाहीं. धर्माच्या बाबातींत जो अति कंजूष असतो, ज्याच्या वर्तनामध्यें सुधारणा होत नाहीं, आणि ज्याचें अंतःकरण अति कठोर आहे अशा माणसाला परमार्थ साधत नाहीं. जो लोकाशीं सरळ वागत नाहीं. जो सज्जनांना आवडत नाहीं, जो रात्रंदिवस दुसर्‍याचें उणें पाहात राहतो, जो सदा सर्वकळ खोटेपणानें वागतो, थापा मारतो, ज्याचें बोलणें मायावी व लपवाछपवीचें असतें, ज्याच्या आचारांत व विचारांत मेळ नाहीं आणि ज्याचें कोणतेंच बोलणें खरें नाहीं अशा माणसाला भगवंत भेटणें शक्य नाहीं. विंचू व इतर विषारी प्राणी कोणालाही दंश करण्यास सतत असतात. त्याप्रमाणें वाईट शब्द बोलून जो सगळ्यांच्या अंतःकरणास जखमा करतो, दुसर्‍याला दुःख द्यायला जो केव्हांही मनापासून तयार असतो, जो स्वतःचे अवगुण झांकून ठेवतो पण दुसर्‍यांना त्यांच्या दोषाबद्दल कठीण शब्द बोलतो, ज्याच्या अंगीं जे गुणदोष नसतात ते जो खोटेपणानें त्याच्यावर लादतो.

ज्याप्रमाणें एखाद्या दुराचारी क्रुर माणूस दुसर्‍याच्या दुःखाने विरघळत नाहीं त्याप्रमाणें जो स्वतः अंतःकरणांत पापमय असतो, परंतु दुसर्‍याच्या हातून कांहीं पाप घडलें तर ज्याला त्याची कींव येत नाहीं अशा माणसाला भगवंत भेटत नाहीं. दुष्ट माणसाला दुसर्‍याचें दुःख कळत नाहीं. दुःखी असलेल्या माणसाला तो अधिक दुःख देतो. इतकेंच नव्हे तर दुसर्‍याचें कष्ट पाहून दुर्जनाच्या मनाला उलट आनंद वाटतो. अशा माणसाला भगवंत मिळत नाहीं. दुर्जन माणूस स्वतःच्या दुःखानें मनांत कष्टी असतोच पण दुसर्‍याचें दुःख पाहून तो हांसतो, त्याला बरें वाटतें. अशा माणसाला अखेर यमपुरीस जावें लागतें व तेथें यमराजाचे दूत त्याला मार देतात. असो, असे जे लोक बिचारे मदोन्मत्त असतात त्यांना भगवंताची भेट होत नाहीं. पूर्वी केलेल्या पापांमुळें त्यांची बुध्दि भगवंताकडे वळत नाहीं. देहाचा अंतकाळ आला म्हणजे त्यांचीं गातें अगदी क्षीण होतात, आणि अगदी जवळचे नातेवाईक दूर होतात. त्यावेळीं त्यांना आपल्या वाईट कर्माची जाणीव होते.

जे सतशिष्य असतात ते वरील अवगुण कटाक्षानें टाळतात. संसारामध्यें सुख नाहीं असा अनुभव येऊन सुध्दां पढतमूर्ख प्रपंचाच्या नादीं लागतात, भगवंताला सर्वस्वी विसरतात. :
असो. वर सांगितलेले अवगुण ज्यांच्यामध्यें नाहींत असे सतशिष्य निराळेच असतात. त्यांची श्रध्दा घट्ट असते, त्यांच्या मनांत संशयवृत्ति जागी असते, कुळाचा अभिमान ज्यांच्या मागे जडलेला असतो, अशी माणसे प्रपंचालाच मनानें पुन्हा घट्ट धरून ठेविले तर तो पुन्हा दुःखच देणार हें निश्चित होय.

संसारात आपलेपणा ठेवल्यानें सुख मिळालें असें आजपर्यंत कधी पाहिलें नाहींम व ऐकलेंही नाहीं. हें माहीत असून जे प्रपंचात गुंततात ते स्वतःचे नुकसान करुन घेतात, स्वतःच आपलें दुःख निर्माण करतात. संसारामध्यें सुख मानणारी माणसे मंदबुध्दीची किंवा मूर्ख असतात. पढतमूर्ख जाणुनबुजून संसारातील दुःखाकडे डोळेझांक करतात. प्रपंच करायला कांहींच हरकत नाहीं. तो खुशाल करावा. परंतु त्याबरोबरच थोडा परमार्थदेखील वाढवावा. परमार्थ अगदीच बुडवावा हें कांहीं योग्य नाहीं. मागील दोन समासांमध्यें गुरुशिष्यांच्या लक्षाणाचें विवेचन व वर्णन केलें. आतां पुढील समासांत उपदेशाचें लक्षण सांगतो.


॥ श्रीराम समर्थ ॥